श्रील प्रभुपाद की पुस्तकें कैसे लिखी गयीं और हमें क्यों उन्हें पढ़ना चाहिए ?
श्रील प्रभुपाद ने कहा, उन्होंने (भगवान कृष्ण ने) मुझे यहाँ आने को कहा परन्तु मैंने कहा कि मैं वहां नहीं जाना चाहता क्योंकि वह एक गन्दा स्थान है । उन्होंने (भगवान कृष्ण ने) कहा की यदि मैं जाऊं तो वे मेरे लिए सुन्दर भवनों का प्रबंध करवा देंगे । मैंने कहा, परन्तु मैं वहां नहीं जाना चाहता । उन्होंने (भगवान कृष्ण ने) कहा, आप केवल जाइये और पुस्तकें लिखिए और मैं आपके लिए सब कुछ सुविधाजनक बना दूंगा ।
श्रील प्रभुपाद यह बताते हैं, क्योंकि उन्होंने मुझे इन पुस्तकों को लिखने का आग्रह किया इसलिए मैं यहाँ आया ।
एक बार मुम्बई में श्रील प्रभुपाद ने मुझे उनके कमरे में आकर कुछ आजीवन-सदस्यों को प्रचार करते हुए सुनने का आदेश दिया । मैंने वहां लगभग एक घंटे बैठकर उन्हें सुना । सभी के जाने के उपरांत उन्होंने मुझे डांटते हुए कहा तुम प्रीतिदिन मुझे प्रचार करते हुए सुनने यहाँ क्यों नहीं आते ? तुम मेरे अग्रणी शिष्यों में से एक हो, यदि तुम ही मुझसे यह नहीं सीखोगे की प्रचार कैसे करते हैं, क्या होगा ?
तत्पश्चात उन्होंने संस्कृत में भगवद-गीता से एक श्लोक उद्धरित किया और मुझसे पूछा की क्या मैं उसको अंग्रेजी में बता सकता हूँ, गीता में वह कहाँ है, और उसका अर्थ क्या है । दुर्भाग्यवश मेरे पास कोई उत्तर नहीं था । उन्होंने पूछा, क्या तुम मेरी पुस्तके पढ़ रहे हो ? मैंने अपनी उपेक्षा को स्वीकारा ।
यदि तुम प्रतिदिन मेरी पुस्तकें नहीं पढोगे तो कैसे सीखोगे ? तुम बाहर जाकर आजीवन-सदस्य बना रहे हो, दान एकत्र कर रहे हो परन्तु मेरी पुस्तकें नहीं पढ़ रहे । तुम्हें प्रतिदिन मेरी पुस्तकें पढ़नी चाहिए ।
फिर उन्होंने कहा, मैं भी प्रतिदिन अपनी पुस्तकें पढता हूँ । क्या तुम्हे पता है, क्यों ? मैंने स्वयं उत्तर देने की अपेक्षा उनके उत्तर की प्रतीक्षा की । क्योंकि हर बार मैं इन पुस्तकों को पढता हूँ तो इनसे कुछ सीखने को मिलता है । मैं निस्तब्ध मौन बैठा रहा । फिर उन्होंने पूछा क्या तुम्हें पता है मैं हर बार इन पुस्तकों को पढता हूँ तो क्यों कुछ नया सीखता हूँ ? अब मैं पूर्णतया विस्मित था । क्योंकि मैंने इन पुस्तकों को नहीं लिखा है । आगे जो विदित हुआ वह पूरी तरह से आश्चर्यजनक था । उन्होंने पूर्ण तल्लीनता पूर्वक मेरी आँखों से तीव्र और सीधा संपर्क बनाते हुए मेरी ओर देखा । भावोन्मत्त पूर्ण विश्वस्तता परन्तु रहस्यमयी भाव से वे वर्णन करने लगे कि उनकी पुस्तकें कैसे लिखी जाती हैं ।
उन्होंने कहा, प्रतिदिन जब मैं यहाँ इन पुस्तकों को लिखने बैठता हूँ, अब उनकी दृष्टि ऊपर की ओर और हाथ हवा में हिल रहे थे, उनका कंठ भावावेश में अवरुद्ध हो रहा था, भगवान कृष्ण व्यक्तिगत रूप से आते हैं और हर शब्द वे स्वयं लिखवाते हैं । मुझे इसकी अनुभूति हुयी की भगवान कृष्ण उस समय कमरे में उपस्थित थे परन्तु मैं उन्हें देखने में अक्षम था । अब श्रील प्रभुपाद ने अपनी दृष्टि मेरी ओर की और कहा, इसलिए जब भी मैं इन पुस्तकों को पढता हूँ, मैं भी कुछ सीखता हूँ और इसलिए यदि तुम भी प्रतिदिन मेरी पुस्तकों को पढोगे तो हर बार तुम भी कुछ सीखोगे ।
– भागवत दास द्वारा
जय श्रील प्रभुपाद